सिमरन कर ले मेरे मना
तेरी बीती जाये उमारिया हरि नाम बिना,
सिमरन कर ले मना।
पंछी पंख बिना, हस्ति दन्त बिना, नारी पुरुष बिना।
जैसे पुत्र पिता बिन हीना, तैसे प्राणी हरि नाम बिना।
कूप नीर बिना, धेनु खीर बिना, धरती मेह बिना।
जैसे तरुवर फल बिन हीना, तैसे प्राणी हरि नाम बिना।
देह नैन बिन, चन्द्र रैन बिन, मंदिर दीप बिना।
जैसे पंडित वेद विहीना, तैसे प्राणी हरि नाम बिना।
काम, क्रोध, मद, लोभ निवारो, छोड़ विरोध तू संत जना।
कह नानक सा सुन भगवंता, इस जग में नहीं कोऊ अपना।
सिमरन कर ले मेरे मना तेरी बीती उमर हरि नाम बिना।
तेरी बीती उमरिया हरि नाम बिना।।
गुरु नानक
नामजप में मुख्य तीन बातें समझनी हैं-
1- नाम जप क्यों?
जीव मात्र सुख पाना चाहता है और दुख से बचना चाहता है। चाहे भी क्यों न, अपनाआपा आनन्द स्वरूप होने के कारण सुख की ओर वृत्ति का बह जाना, स्वाभाविक ही है।
पर जगत में उसे सुख दुख मिश्रित होकर मिलता है। आखिर उसे दुख मिलता ही क्यों है? आएँ इसका कारण स्पष्ट करें।
तो सबसे पहली बात यह है कि वर्तमान जन्म में मिलने वाला दुख पूर्वजन्मकृत किसी पाप कर्म का फल है। अब वह समय तो अतीत हो गया, बीत गया, और अतीत बदला नहीं जा सकता, अतः उस हो चुके कर्म को तो बदला नहीं जा सकता। तब क्या करें?
हमारे पास दो ही विकल्प हैं। या तो दुख भोगते रहें। या उस पापकर्म को काटने का प्रयास करें। और पाप काटने का सर्वोत्तम उपाय है, भगवान के नाम का जप।
2- नाम जप कैसे?
नाम जपने के चार सोपान और तीन गति हैं-
बैखरी माने बोलकर नाम जपना, मध्यमा माने मन में जपना, पश्यन्ति माने नाम जब मन में अपनेआप चलने लगा तब उस चलते नाम को देखना, और परा माने परमात्मा प्राप्ति। इन्हीं को जपा, अजपा, अनहद, परा भी कहा जाता है।
बैखरी और मध्यमा में नाम तीन गति से जपा जाता है- पहले ह्रस्व माने तेज तेज (रामरामरामराम), फिर दीर्घ माने मध्यम गति से (राsम राsम राsम राsम), और अभ्यास होने पर प्लुत माने विलम्पत् माने लम्बा खींच कर (राssssssम राssssssम)।
3- नाम जप से द्रष्टा की उपलब्धि।
ध्यान से समझें, जिस दिन नाम जपते हुए, आपका ध्यान, नाम छोड़कर कहीं ओर चला गया, और फिर जब ध्यान वापिस आया तब आपने अपने भीतर नाम चलता पाया। तो पहली बार आपको मालूम पड़ा कि अरे! नाम तो मेरे बिना ही चल रहा था। माने मैं जप का कर्ता नहीं हूँ, कर्ता तो मन था, मैं तो उसका द्रष्टा हूँ।
ऐसे ही बार बार जप का द्रष्टा होते होते, आप संपूर्ण अंत:करण के ही द्रष्टा हो जाते हो। नियम यह है कि कर्ता ही भोक्ता होता है, द्रष्टा भोक्ता नहीं होता। और जो भोक्ता ही नहीं रहता, उसे दुख नहीं होता।
अत: कहना उचित होगा कि नाम तीन प्रकार का फल देता है। अतीत के पाप काटता है, वर्तमान में शान्ति देता है और कालान्तर में द्रष्टाभाव में स्थित कर, दुख से छुड़ाकर, परमात्मा रूपी फल की प्राप्ति कराता है।