प्रणव मन्त्र ॐ / प्रभु सुमरिन – बाल्य / युवा अवस्था से ही क्यों प्रारंभ करना चाहिए? छोटी आयु में जब तक मन के धागे सीमित क्षेत्र में फैले होते हैं मनुष्य आसानी से समेट कर मनोनिग्रह कर सकता है। वृद्धावस्था में पहुँचते-पहुँचते उसका सम्बंध क्षेत्र इतना विशाल रूप धारण कर लेता है कि उससे अपने मन के धागे समेटना बहुत कष्टसाध्य बल्कि नामुमकिन हो जाता है।फिर यह मान भी लिया जाये कि अब न सही बुढ़ापे में ही भजन कर लिया जाये तो इस बात की कोई गारंटी नहीं कि बुढ़ापा आने तक जीवन रहेगा ही।
“जब तक शरीर स्वस्थ है, बुढ़ापा नहीं आया है, इन्द्रियों की शक्ति पूर्ण बनी हुई है, आयु के दिन शेष हैं, तभी तक बुद्धिमान पुरुष को अपने कल्याण के लिए अच्छी तरह प्रयत्न कर लेना चाहिए। घर में आग लग जाने पर कुआँ खोदने से क्या होगा? एक फारसी कवि ने क्या अच्छा कहा है –
” ईश्वर प्राप्ति के लिए जो मनुष्य युवावस्था में एकांत सेवन कर रहा है वह बड़ा ही शूरवीर है वरना बुढ़ापे में तो चलने-फिरने की शक्ति न रहने से सभी एकांतसेवी हो जाते हैं। “
यहाँ एकांत सेवन से तात्पर्य अरण्य (जंगल) वास या घर में बंद होकर बैठने का नहीं है बल्कि अपने को संसार की चमक-दमक और मोहक प्रभावों से अलग रखने से और आत्मनिग्रह से है।
इसके लिए अपेक्षाकृत अधिक बल, वीर्य, बुद्धि और साहस की आवश्यकता है जो बुढ़ापे में बिल्कुल सम्भव नहीं।
*गाफिल तुझे घड़ियाल यह देता है मुनादी।**गर तूने घड़ी उम्र की एक और घटा दी।।*
मनुष्य जीवन बड़ी दुर्लभ वस्तु है। इसका मिलना परमात्मा की अहैतुकी कृपासाध्य है। इसका उपयोग मनुष्य को भली प्रकार कर लेना चाहिए।
यह मनुष्य योनि ही जीव व ईश्वर के मिलन की संधि रेखा है। यदि इस बार अमूल्य संयोग खो दिया तो फिर चौरासी के चक्कर में भ्रमण अवश्यम्भावी है। “