पंचतत्त्वों का संतुलन, स्वास्थ्य रक्षा एवं रोग निवारण♦
शरीर में पंचतत्व इस प्रकार से है…शरीर में जो ठोस है,वह पृथ्वी तत्व ,जो तरल या द्रव्य है वह जल तत्व,जो ऊष्मा है वह अग्नि तत्व,जो प्रवाहित होता है वह वायु तत्व और समस्त क्षिद्र आकाश तत्व है
” alt=”” width=”328″ height=”183″ />हमारा शरीर पाँच तत्त्वों से मिलकर बना है।
#मुद्रा_चिकित्सा_से_स्वास्थ्य_उपाय
पार्ट – 2
👉पंच तत्वों और स्वास्थ्य का संबंध;
⚪शरीर की समस्त प्रणालियों का सुचारू संचालन एवं कार्यकुशलता । पंच तत्वों से ही होती है । हमारे स्वास्थ्य का सीधा संबंध इन पांच तत्वों से है । जबतक इन पांच तत्वों का संतुलन बना रहता है , हम स्वस्थ रहते हैं ।
⚪संतुलन क्या है ? इसे जानने से पहले यह जानना आवश्यक है कि हमारे शरीर में इन पांच तत्वों का अनुपात क्या है ? जल 72 प्रतिशत है , पृथ्वी 12 प्रतिशत है , वायु 6 प्रतिशत , अग्नि 4 प्रतिशत और आकाश शेष 6 प्रतिशत है ।
⚪इनमें आकाश सर्वाधिक Expansive है और वायु सर्वाधिक गतिशील है । आजकल इन पांच तत्त्वों का संतुलन बिल्कुल बिगड़ चुका है । इसका कारण है- हमारी जीवन शैली और विकृत भोजन । पानी कम पीने से , रसीले फलों और सलाद के सेवन की कमी से जल तत्व कम होता जा रहा है , जरूरत से ज्यादा भोजन करने से पृथ्वी तत्व बढ़ता जा रहा है । ज्यादा तला – भुना , रूखा – सूखा , तेज अग्नि पर पकाए गए भोजन से अग्नि तत्व बढ़ता जा रहा है । छोटे – छोटे कमरों में सिमिट जाने से , बंद कमरों में सोने से आकाश तत्व कम होता जा रहा है और खुली हवा का सेवन न करने से वायु तत्व भी कम होता जा रहा है । जब यह संतुलन बिगड़ जाता है तो हम अस्वस्थ होते हैं , हम रोगी हो जाते हैं । इस असंतुलन से रोग ही होते हैं ? असंतुलन का अर्थ है- आवश्यकता से अधिक बढ़ जाना या कम जाना ।
⚪आइये जानते हैं कि प्रत्येक तत्व के असंतुलन से रोग कैसे उत्पन्न होते है ।
👉अग्नि तत्व – के अंसतुलन से उत्पन्न होने वाले रोग:
अग्नि तत्व के बढ़ने से शरीर में गर्मी बढ़ जाती है , त्वचा सूखने लगेंगी सभी प्रकार के त्वचा रोग उत्पन्न होते हैं , जैसे खाज – खुजली , एग्जाम, सोरायसिस , हरपीज़, पेट की गर्मी बढ़ने से अम्लपित्त हो जाता है , छाती में जलन होती है , बवासीर , फिशुर आदि रोग होते हैं , रक्त चाप बढ़ जाता है , ज्वर हो जाता है . गुस्सा बहुत आता है , मानसिक तनाव बढ़ जाता कैंसर हो होता है ।
⚪अग्नि तत्व की कमी से त्वचा ठही रहती है , सर्दी- जुकाम , सायनस , औकाइटिस , अस्थमा , निमोनिया जैसे रोग होते हैं । मानसिक रोग , अवसाद होता है । ऊर्जा की कमी हो जाती स्मरण शक्ति कमजोर होती है , निम्न रक्तचाप हो जाता है , पेट की अग्नि मंद पड़ने से भोजन का पाचन ठीक से नहीं होता है , मधुमेह हो जाता है । अग्नि की कमी से मेटाबोलिज्म बिगड़ जाता है , फैट जमा होता है और मोटापा बढ़ता है ।
👉वायु के असंतुलन से उत्पन्न होने वाले रोग:
वायु के बढ़ने से गैस रोग होते हैं , किसी भी अंग में वायु एकत्रित होने से पीड़ा होती है , रक्त संचार में बाधा पड़ती है- जोड़ों की पीड़ा , कमरदर्द , सवाइकल पीड़ा , सायटिका पीड़ा , मांस – पेशियों की पीड़ा , हृदय की पीड़ा ( Angina Pectoris ) , हृदयाघात , लकवा , पोलियो आदि रोग होते हैं । पेट दर्द भी होता है ।
⚪वायु की कमी से श्वास रोग होते हैं । वायु की कमी से मानसिक तनाव , निराशा , अवसाद होता है , स्मरण शक्ति की कमी होती है । वायु का संबंध अग्नि से है । वायु की कमी से अग्नि भी मंद पड़ जाती है । इसीलिए वायु की कमी से मानसिक रोग और स्नायु तंत्र के रोग होते हैं ।
👉आकाश तत्व के असंतुलन से उत्पन्न होने वाले रोग;
आकाश तत्व से ध्वनि उत्पन्न होती है । इसके असंतुलन से सुनने व बोलने के रोग , गले के रोग , कफ रोग , कान दर्द , सुनाई कम देना , कानों के समस्त रोग , बच्चों का तुतलाना , आवाज बैठ जाना , छोटे बच्चों को देर से बोलना , गूंगे – बहरे बच्चों को पैदा होना , थायरायड के रोग होते हैं ।
⚪आकाश तत्व की कमी से हड्डियां कमजोर होती हैं , जोड़ों के बीच खाली जगह कम होने से जोड़ों के दर्द होते हैं , कमर दर्द होता है तथा कैल्शियम की कमी होती है । आकाश तत्व की कमी से हम स्वार्थी बनते हैं , सहनशीलता कम होती है , मैत्रीभाव समाप्त होता है ।
👉पृथ्वी तत्व के असंतुलन से उत्पन्न होने वाले रोग पृथ्वी तत्व के बढ़ने से वजन में वृद्धि , मोटापा और मोटापा जनित रोग , कोलेस्ट्रॉल का बढ़ना , मधुमेह , शरीर में भारीपन , जड़ता , उदासी , तामसिकता आदि रोग होते हैं ।
इसके विपरीत पृथ्वी तत्व के कम होने से कमजोरी, खून की कमी , दुर्बलता , हीमोग्लोबिन की कमी , विटामिन्स व खनिज पदार्थों की कमी, हड्डियों और मासपेशियों को कमजोरी , कमजोर बच्चे , बच्चों के शारीरिक विकास में अवरोध , बच्चों का कद न बढ़ना , बालों का झड़ना , बालों का जल्दी सफेद होना , सर्दी – जुकाम , अस्थमा एवं इम्म्यून सिस्टम की कमजोरी , हर्निया जैसे रोग होते हैं ।
👉जल तत्व के असंतुलन से उत्पन्न होने वाले रोग जल तत्व के बढ़ने से शरीर के किसी भी अंग में पानी का भर जाना जैसे उदरामय ( Dropsy ) , फेफड़ों में पानी भर जाना , ( Pleurisy ) मस्तिष्क में पानी भर जाना ( Meningitis ) , टखनों में पानी भर जाना ( Filaria ) , हाथी पाँव , मोच आना , शरीर में कहीं भी सूजन हो जाना , सर्दी – जुकाम , नाक व आंख से पानी बहना जैसे रोग हो जाते हैं ।
जल तत्व की कमी से अनेक रोग होते हैं- जैसे निर्जलीकरण ( Dehydration ) , त्वचा का सूखापन , त्वचा रोग , हाथ – पैर , एड़ियां होंठो का फटना , त्वचा की कोमलता का समाप्त होना , चेहरे पर झुर्रियां पड़ना , दाग – धब्बे , पिम्पल्स का होना , बालों की रूसी , मोतिया बिंद , ( आंखों का सूखापन ) , गुस्सा बहुत आना , प्रजनन अंगों के रोग , ओवरीज व गर्भाशय में सिस्ट और फ़ायब्रॉडज का बनना , मूत्र रोग , गुर्दे व मूत्राशय में पथरी का बनना ।
अर्थात् हमारे शरीर में अधिकांश शारीरिक और मानसिक रोग पंच तत्वों के असंतुलन से ही होते हैं । इसका मतलब यह हुआ कि यदि हम किसी प्रकार से पंच तत्वों को संतुलन बनाना सीख जाएं तो हम अपने रोगों को भी ठीक कर सकते है।
वर्तमान समय में करोड़ों रुपये दवाओं , डाक्टरों और अस्पतालों पर खर्च हो रहे हैं । फिर भी रोग और रोगियों की संख्या बढ़ रही है । मानव समाज शारीरिक व्याधियों से घिर गया है । बहुत से परिवार दवा और डाक्टरों के पीछे अपना धन एवं समय खो रहे हैं , फिर भी स्वस्थ नहीं हुए । गांवों की गरीब जनता धन हीनता के कारण उपचार करवाने में असमर्थ है।
इन पंचतत्त्वों में असन्तुलन और घटा- बढ़ी से रोगों की उत्पत्ति होती है। अंगुलियों की सहायता से विभिन्न मुद्राओं द्वारा इन पंचतत्त्वों को सन्तुलित कर स्वास्थ्य रक्षा एवं रोग निवारण किया जा सकता है। कुछ मुद्रायें तत्काल असर करती हैं। जैसे- शून्य मुद्रा, लिंग मुद्रा, आदित्य मुद्रा एवं अपान वायु मुद्रा। कुछ मुद्राएँ लम्बे समय के अभ्यास के बाद अपना स्थायी प्रभाव प्रकट करती हैं। इन्हें चलते- फिरते, उठते- बैठते ४५ मिनट तक करने से पूर्ण लाभ होता है। ज्ञान, प्राण, पृथ्वी, अपान, ध्यान, सहज शंख एवं शंख मुद्रा की कोई समय सीमा नहीं है। अधिक करने से अधिक लाभ होगा। मुद्राएँ दोनों हाथों से करनी चाहिए। एक हाथ से मुद्रा करने पर भी लाभ होता है, जैसे- ज्ञान मुद्रा। बाएँ हाथ से जो मुद्रा की जाती है, उसका शरीर के दायीं ओर के अंगों पर प्रभाव पड़ता है और दाएँ हाथ से जो मुद्रा की जाती है, उससे बायीं तरफ का शरीर प्रभावित होता है। मुद्रा में अंगुलियों का स्पर्श करते समय दबाव हलका और सहज होना चाहिए। शेष अंगुलियाँ तान कर रखने के बजाय सहज भाव से सीधे रखें।
अंगुलियों में पंचतत्त्व
अंगुष्ठ– अग्नि, तर्जनी- वायु, मध्यमा- आकाश, अनामिका- पृथ्वी, कनिष्ठा– जल।
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१. पुस्तक मुद्रा– मुट्ठी बाँध लें। अँगूठा तर्जनी मुड़े भाग पर रहे।
लाभ – मस्तिष्क के सूक्ष्मकोश क्रियाशील होने से एकाग्रता की वृद्धि। कम समय में ज्यादा विद्या ग्रहण। कोई भी पुस्तक (धार्मिक या कठिन हो) जल्दी समझ में आ जाती है।
२. ज्ञान मुद्रा– अंगुष्ठ,तर्जनी के अग्रभाग को मिलायें। शेष अंगुलियाँ सीधी।
लाभ – एकाग्रता, नकारात्मक विचार कम। सिर दर्द, अनिद्रा, क्रोध तथा समस्त मस्तिष्क रोग- पागलपन, उन्माद, विक्षिप्तता, चिड़चिड़ापन, अस्थिरतापन, अनिश्चितता, आलस्य, घबराहट, अनमनापन या डिप्रेशन, व्याकुलता एवं भय का नाश करती है। स्मरण शक्ति तेज, दिव्य दृष्टि की प्राप्ति। अच्छे परिणाम हेतु बाद में प्राण मुद्रा करें।
३. प्राण मुद्रा– कनिष्ठा, अनामिका तथा अँगुष्ठ के अग्रभाग को मिलायें।
लाभ – प्राण की सुप्त शक्ति का जागरण, शरीर में स्फूर्ति, आरोग्य और ऊर्जा का विकास, नेत्र ज्योतिवर्धक, रोग प्रतिरोधक शक्ति का विकास, विटामिन की पूर्ति, उपवास काल में भूख- प्यास की कमी एवं थकान दूर करती है।
४. पृथ्वी मुद्रा– अनामिका, अँगुष्ठ के अग्रभाग को मिलायें।
लाभ – शारीरिक दुर्बलता, पाचन शक्ति ठीक। जीवनी शक्ति व सात्विक गुणों का विकास। विटामिन की पूर्ति। शरीर में कान्ति एवं तेजस्विता की वृद्धि। वजन बढ़ाती और आध्यात्मिक प्रगति में सहयोगी।
५. वायु मुद्रा – तर्जनी को अंगुष्ठ के मूल में लगाकर अंगूठे को हलका सा दबायें।
लाभ- पुराने वातरोग, पोलियो, मुँह का टेढ़ा पड़ जाना आदि में लाभदायक ।। स्वस्थ होने तक ही करें। साथ में प्राण मुद्रा अधिक हितकर।
६. अपान मुद्रा – अनामिका,मध्यमा एवं अंगुष्ठ के अग्रभाग को मिलायें।
लाभ- शरीर के विजातीय तत्त्व बाहर। कब्ज, बवासीर, मधुमेह, गुर्दा दोष दूर। पसीना लाती है। निम्र रक्तचाप, नाभि हटना तथा गर्भाशय दोष ठीक करती है। शरीर को योग की उच्च स्थिति में पहुँचने लायक सूक्ष्माति- सूक्ष्म स्वच्छ स्थिति की प्राप्ति। साथ में प्राण मुद्रा करने पर मुख, नाक, आँख, कान के विकार भी दूर होते हैं।
७. शून्य मुद्रा – मध्यमा अंगुली को अंगुष्ठ के मूल में लगाकर अंगुष्ठ से हलका दबाकर रखें।
लाभ- कान का बहना एवं कान दर्द में आराम बहरेपन में दीर्घकाल तक न्यूनतम १ घण्टा करें। स्वस्थ होने तक ही करें। जन्म से बहरे गूंगे होने पर इसका प्रभाव नहीं होता। अस्थियों की कमजोरी व हृदय रोग दूर, मसूढ़ों की पकड़ मजबूत होती है। गले के रोग एवं थाइराइड रोग में लाभ।
८. आकाश मुद्रा – मध्यमा अँगुली को अंगूठे के अग्रभाग से लगायें।
लाभ- कान के जो रोग शून्य मुद्रा से ठीक न हों, वे इस मुद्रा से ठीक होते हैं। हड्डियों की कमजोरी तथा हृदय रोग में लाभ।
९. सहज शंख मुद्रा – दोनों हाथ की अंगुलियों को आपस में फँसाकर हथेलियाँ दबायें तथा दोनों अँगूठे को बराबर में सटा कर रखें।
लाभ- हकलाना, तुतलाना बन्द एवं आवाज मधुर होती है। पाचन क्रिया ठीक होती है। आन्तरिक और बाहरी स्वास्थ्य पर भी अच्छा प्रभाव पड़ता है।
ब्रह्मचर्य पालन में मदद मिलती है। वज्रासन में करने पर विशेष लाभ।
१०. शंख मुद्रा – बाएँ हाथ के अँगूठे को दोनों हाथ की मुट्ठी में बंद करें।
लाभ- गले व थाइराइड ग्रन्थि पर प्रभाव। आवाज मधुर, पाचन क्रिया में सुधार। वाणी सम्बन्धी समस्त दोष,आँत व पेट के निचले भाग के विकार दूर होते हैं। यह मुद्रा पूजन में भी प्रयुक्त होती है।
११. जलोदर नाशक – कनिष्ठा को अँगूठे के जड़ में लगाकर अँगूठे से दबायें।
लाभ- जल तत्त्व की अधिकता से होने वाले सभी रोग,सूजन, जलोदर आदि में विशेष लाभ होता है। रोग शान्त होने तक ही करें।
१२. सूर्यमुद्रा – अनामिका को अँगूठे के मूल में लगाकर अँगूठे से दबायें।
लाभ- मोटापा कम होने से शरीर सन्तुलित, पाचन क्रिया में मदद मिलती है। शक्ति का विकास, आलस्य दूर, कोलेस्ट्राल में कमी, तनाव में कमी फलस्वरूप मधुमेह, यकृत दोष में लाभ होता है। पद्मासन में बैठकर करना अच्छा रहता है।
१३. अपान वायु मुद्रा – तर्जनी को अंगुष्ठ मूल में लगाकर अँगूठे से हलका सा दबायें तथा अनामिका,मध्यमा एवं अंगुष्ठ के अग्रभाग को मिलायें।
लाभ- इससे हृदय एवं वात रोग दूर होते हैं। शरीर में आरोग्यता का विकास, दिल का दौरा पड़ते ही यह मुद्रा करने पर आराम। पेट- गैस का निष्कासन। सिर दर्द, पेट दर्द, कमर दर्द, साइटिका, गठिया, दमा, उच्च रक्तचाप, एसीडिटी में लाभ। शरीर का तापमान सन्तुलित। दमा के रोगी सीढ़ियों पर चढ़ने से पाँच- सात मिनट पहले कर लें।
१४. वरुण मुद्रा – कनिष्ठा अंगुली को अँगूठे से लगायें।
लाभ- रूखापन नष्ट, चमड़ी चमकीली व मुलायम, चर्मरोग, रक्त विकार, मुहाँसे एवं जल की कमी वाले रोग दूर होते हैं। दस्त, में लाभ। शरीर में खिंचाव का दर्द ठीक होता है।
१५. आदित्य मुद्रा – अंगुष्ठ को अनामिका के जड़ में लगायें। हलका सा दबायें। शेष अंगुलियाँ सीधी रखें।
लाभ- छींक, उबासी में लाभ होता है।
१६. लिंग मुद्रा – दोनों हाथों की अंगुलियों को आपस में फँसा कर बायें हाथ का अंगूठा खड़ा रखें। दाहिने हाथ के अँगूठे से बायें हाथ के अँगूठे को लपेट लें।
लाभ- गर्मी बढ़ाती है। सर्दी,जुकाम, दमा,खाँसी, साइनस, लकवा, निम्र रक्तचाप में लाभ। नाक बहना बन्द। बन्द नाक खुल जाती है।
१७. ध्यान मुद्रा – बायें हाथ की हथेली पर दायें हाथ की हथेली रखें। कमर सीधी, आँखें बन्द रखें।
लाभ- ओज एवं एकाग्रता में वृद्धि करती है। ध्यान की उच्चतर स्थिति तक पहुँचने में सहायक। ज्ञान मुद्रा एवं ध्यान मुद्रा दोनों एक साथ करने पर दोनों के सम्मिलित लाभ मिल जाते हैं।
रोगानुसार मुद्राएँ
आलस्य- पृथ्वी, प्राणमुद्रा
उ.र.चाप– अपानवायु, प्राणमुद्रा
उत्तेजना- ज्ञान, ध्यानमुद्रा
एलर्जी- लिंग, शंखमुद्रा
एसीडिटी– अपानवायु, अपानमुद्रा
कफ– लिंग, सूर्यमुद्रा
कब्ज- अपानमुद्रा
कमरदर्द– अपानवायु
खाँसी- लिंग, सूर्यमुद्रा
खुजली- वरुणमुद्रा
गर्दन दर्द- वायुमुद्रा
गैस्ट्रिक/पेटदर्द– अपानवायुमुद्रा
घुटना दर्द- अपानवायुमुद्रा
चिन्ता- ज्ञान, ध्यानमुद्रा
चिड़चिड़ापन– ज्ञान, ध्यानमुद्रा
छींक,उबासी– आदित्यमुद्रा
जलन- वरुण, अपानमुद्रा
जड़ता- प्राणमुद्रा
जबड़ा जकड़ना– आकाशमुद्रा
जुकाम- लिंग, सूर्यमुद्रा
टांसिल– शंखमुद्रा
टी.बी.– लिंग, सूर्यमुद्रा
डायबिटीज– प्राण+अपानमुद्रा
थकान- प्राण, पृथ्वीमुद्रा
थाइराइड- सूर्य,शंख,सहज शंखमुद्रा
दमा- अपान वायु, सूर्य, लिंगमुद्रा
दस्त- वरुण,वायु,अपानवायुमुद्रा
दाँतदर्द– आकाश, अपानमुद्रा
दुर्बलता- पृथ्वीमुद्रा
निमोनिया- सूर्य, लिंगमुद्रा
नि.र.चाप– प्राण,लिंग,अपान,आकाश
निराशा- ज्ञान, प्राणमुद्रा
प्यास बुझाना- वरुण, प्राणमुद्रा
प्लूरसी– (फेफड़े में पानी) सूर्य, लिंग
पेशाब बन्द होना- अपानवायुमुद्रा
पाचन- पृथ्वी, सूर्य, लिंग,सहजशंख
पैर दर्द- प्राणमुद्रा
बवासीर- सहज शंखमुद्रा
ब्रह्मचर्य- सहज शंखमुद्रा
बुखार- अपानवायु, वरुण, लिंगमुद्रा
बेचैनी- ज्ञान, अपानवायु, प्राणमुद्रा
भय- ज्ञानमुद्रा
भूख- प्राणमुद्रा
मासिकधर्म– अपान, शंखमुद्रा
मूर्छा- वरुणमुद्रा
याददाश्त- ज्ञानमुद्रा, पुस्तक मुद्रा
रक्तदोष– वरुण, प्राण, अपानमुद्रा
लकवा- वायु, प्राणमुद्रा
लीवर– सूर्य, शंख, सहजशंखमुद्रा
वजन बढ़ाना- पृथ्वीमुद्रा
वजन घटाना- सूर्यमुद्रा
शियाटिका– अपानवायु, प्राणमुद्रा
सायनस– सूर्य, लिंगमुद्रा
सिरदर्द- अपानवायुमुद्रा
सूजन- जलोदर नाशकमुद्रा
सोरायसिस– वरुण, अपानमुद्रा
हकलाना- शंखमुद्रा
हिचकी- अपानवायुमुद्रा
साभार – http://literature.awgp.org/book/aasan_pranayam_bandh_mudra_panchakosh_dhyan/v1.1
🌷वात, पित्त और कफ💐🌺🥀
🌺कफ दोष क्या है?
🏵️कफ दोष, ‘पृथ्वी’ और ‘जल’ इन दो तत्वों से मिलकर बना है। ‘पृथ्वी’ के कारण कफ दोष में स्थिरता और भारीपन और ‘जल’ के कारण तैलीय और चिकनाई वाले गुण होते हैं। यह दोष शरीर की मजबूती और इम्युनिटी क्षमता बढ़ाने में सहायक है। कफ दोष का शरीर में मुख्य स्थान पेट और छाती हैं।
💐कफ शरीर को पोषण देने के अलावा बाकी दोनों दोषों (वात और पित्त) को भी नियंत्रित करता है। इसकी कमी होने पर ये दोनों दोष अपने आप ही बढ़ जाते हैं। इसलिए शरीर में कफ का संतुलित अवस्था में रहना बहुत ज़रूरी है।
💮🌸कफ दोष के प्रकार :
शरीर में अलग स्थानों और कार्यों के आधार पर आयुर्वेद में कफ को पांच भागों में बांटा गया है।
क्लेदक
अवलम्बक
बोधक
तर्पक
श्लेषक
🥀आयुर्वेद में कफ दोष से होने वाले रोगों की संख्या करीब 20 मानी गयी है।
🌺कफ के गुण :
कफ भारी, ठंडा, चिकना, मीठा, स्थिर और चिपचिपा होता है। यही इसके स्वाभाविक गुण हैं। इसके अलावा कफ धीमा और गीला होता है। रंगों की बात करें तो कफ का रंग सफ़ेद और स्वाद मीठा होता है। किसी भी दोष में जो गुण पाए जाते हैं उनका शरीर पर अलग अलग प्रभाव पड़ता है और उसी से प्रकृति का पता चलता है।
🏵️कफ प्रकृति की विशेषताएं :
कफ दोष के गुणों के आधार पर ही कफ प्रकृति के लक्षण नजर आते हैं। हर एक दोष का अपना एक विशिष्ट प्रभाव है। जैसे कि भारीपन के कारण ही कफ प्रकृति वाले लोगों की चाल धीमी होती है। शीतलता गुण के कारण उन्हें भूख, प्यास, गर्मी कम लगती है और पसीना कम निकलता है। कोमलता और चिकनाई के कारण पित्त प्रकृति वाले लोग गोरे और सुन्दर होते हैं। किसी भी काम को शुरू करने में देरी या आलस आना, स्थिरता वाले गुण के कारण होता है।
🌺कफ प्रकृति वाले लोगों का शरीर मांसल और सुडौल होता है। इसके अलावा वीर्य की अधिकता भी कफ प्रकृति वाले लोगों का लक्षण है।
🌹कफ बढ़ने के कारण :
मार्च-अप्रैल के महीने में, सुबह के समय, खाना खाने के बाद और छोटे बच्चों में कफ स्वाभाविक रुप से ही बढ़ा हुआ रहता है। इसलिए इन समयों में विशेष ख्याल रखना चाहिए। इसके अलावा खानपान, आदतों और स्वभाव की वजह से भी कफ असंतुलित हो जाता है। आइये जानते हैं कि शरीर में कफ दोष बढ़ने के मुख्य कारण क्या हैं।
मीठे, खट्टे और चिकनाई युक्त खाद्य पदार्थों का सेवन
मांस-मछली का अधिक सेवन स्नेहा आयूर्वेद ग्रुप
तिल से बनी चीजें, गन्ना, दूध, नमक का अधिक सेवन
फ्रिज का ठंडा पानी पीना
आलसी स्वभाव और रोजाना व्यायाम ना करना
दूध-दही, घी, तिल-उड़द की खिचड़ी, सिंघाड़ा, नारियल, कद्दू आदि का सेवन
🌷कफ बढ़ जाने के लक्षण :
शरीर में कफ दोष बढ़ जाने पर कुछ ख़ास तरह के लक्षण नजर आने लगते हैं। आइये कुछ प्रमुख लक्षणों के बारे में जानते हैं।
हमेशा सुस्ती रहना, ज्यादा नींद आना
शरीर में भारीपन
मल-मूत्र और पसीने में चिपचिपापन
शरीर में गीलापन महसूस होना
शरीर में लेप लगा हुआ महसूस होना
आंखों और नाक से अधिक गंदगी का स्राव
अंगों में ढीलापन
सांस की तकलीफ और खांसी
डिप्रेशन
🌷कफ को संतुलित करने के उपाय :
इसके लिए सबसे पहले उन कारणों को दूर करना होगा जिनकी वजह से शरीर में कफ बढ़ गया है। कफ को संतुलित करने के लिए आपको अपने खानपान और जीवनशैली में ज़रूरी बदलाव करने होंगे। आइये सबसे पहले खानपान से जुड़े बदलावों के बारे में बात करते हैं।
🌹कफ को संतुलित करने के लिए क्या खाएं :
कफ प्रकृति वाले लोगों को इन चीजों का सेवन करना ज्यादा फायदेमंद रहता है।
बाजरा, मक्का, गेंहूं, किनोवा ब्राउन राइस ,राई आदि अनाजों का सेवन करें।
सब्जियों में पालक, पत्तागोभी, ब्रोकली, हरी सेम, शिमला मिर्च, मटर, आलू, मूली, चुकंदर आदि का सेवन करें।
जैतून के तेल और सरसों के तेल का उपयोग करें।
छाछ और पनीर का सेवन करें।
तीखे और गर्म खाद्य पदार्थों का सेवन करें।
सभी तरह की दालों को अच्छे से पकाकर खाएं।
नमक का सेवन कम करें।
पुराने शहद का उचित मात्रा में सेवन करें।
कफ प्रकृति वाले लोगों को क्या नहीं खाना चाहिए :
मैदे और इससे बनी चीजों का सेवन ना करें।
एवोकैड़ो, खीरा, टमाटर, शकरकंद के सेवन से परहेज करें।
केला, खजूर, अंजीर, आम, तरबूज के सेवन से परहेज करें।
🍃जीवनशैली में बदलाव :
खानपान में बदलाव के साथ साथ कफ को कम करने के लिए अपनी जीवनशैली में बदलाव लाना भी जरूरी है। आइये जाने हैं बढे हुए कफ दोष को कम करने के लिए क्या करना चाहिए।
पाउडर से सूखी मालिश या तेल से शरीर की मसाज करें
गुनगुने पानी से नहायें।स्नेहा आयूर्वेद ग्रुप
रोजाना कुछ देर धूप में टहलें।
रोजाना व्यायाम करें जैसे कि : दौड़ना, ऊँची व लम्बी कूद, कुश्ती, तेजी से टहलना, तैरना आदि।
गर्म कपड़ों का अधिक प्रयोग करें।
बहुत अधिक चिंता ना करें।
देर रात तक जागें
रोजाना की दिनचर्या में बदलाव लायें
ज्यादा आराम पसंद जिंदगी ना बिताएं बल्कि कुछ ना कुछ करते रहें।
कफ बहुत ज्यादा बढ़ जाने पर उल्टी करवाना सबसे ज्यादा फायदेमंद होता है। इसके लिए आयुर्वेदिक चिकित्सक द्वारा तीखे और गर्म प्रभाव वाले औषधियों की मदद से उल्टी कराई जाती है। असल में हमारे शरीर में कफ आमाशय और छाती में सबसे ज्यादा होता है, उल्टी (वमन क्रिया) करवाने से इन अंगों से कफ पूरी तरह बाहर निकल जाता है।
🍂कफ की कमी के लक्षण :
कफ बढ़ जाने से तो समस्याएं होना आम बात है लेकिन क्या आपको पता है कि कफ की कमी से भी कुछ समस्याएं हो सकती हैं। जी हाँ, यदि शरीर में कफ की मात्रा कम हो जाए तो निम्नलिखित लक्षण नजर आते हैं।
🌷शरीर में रूखापन :
शरीर में अंदर से जलन महसूस होना
फेफड़ों, हड्डियों, ह्रदय और सिर में खालीपन महसूस होना
बहुत प्यास लगना
कमजोरी महसूस होना और नींद की कमी
🥀कफ की कमी का उपचार :
कफ की कमी होने पर उन चीजों का सेवन करें जो कफ को बढ़ाते हो जैसे कि दूध, चावल। गर्मियों के मौसम में दिन में सोने से भी कफ बढ़ता है इसलिए कफ की कमी होने पर आप दिन में कुछ देर ज़रूर सोएं।
🌹साम और निराम कफ :
पाचक अग्नि कमजोर होने पर हम जो भी खाना खाते हैं उसका कुछ भाग ठीक से पच नहीं पाता है और वह हिस्सा मल के रुप में बाहर निकलने की बजाय शरीर में ही पड़ा रहता है। भोजन के इस अधपके अंश को आयुर्वेद में “आम रस’ या ‘आम दोष’ कहा गया है। यह दोषों के साथ मिलकर कई रोग उत्पन्न करता है।
💮जब कफ ‘आम’ से मिला होता है तो यह अस्वच्छ, तार की तरह आपस में मुड़ा हुआ गले में चिपकने वाला गाढ़ा और बदबूदार होता है। ऐसा कफ डकार को रोकता है और भूख को कम करता है।
जबकि निराम कफ झाग वाला जमा हुआ, हल्का और दुर्गंध रहित होता है। निराम कफ गले में नहीं चिपकता है और मुंह को साफ़ रखता है।
🌺अगर आप कफ प्रकृति के हैं और अक्सर कफ के असंतुलित होने से परेशान रहते हैं तो ऊपर बताए गए नियमों का पालन करें। यदि समस्या ठीक ना हो रही हो या गंभीर हो तो किसी आयुर्वेदिक चिकित्सक से संपर्क करें।
🍁वात दोष क्या है
वात दोष “वायु” और “आकाश” इन दो तत्वों से मिलकर बना है। वात या वायु दोष को तीनों दोषों में सबसे अधिक महत्वपूर्ण माना गया है। हमारे शरीर में गति से जुड़ी कोई भी प्रक्रिया वात के कारण ही संभव है। चरक संहिता में वायु को ही पाचक अग्नि बढ़ाने वाला, सभी इन्द्रियों का प्रेरक और उत्साह का केंद्र माना गया है। वात का मुख्य स्थान पेट और आंत में है।
🥀वात में योगवाहिता या जोड़ने का एक ख़ास गुण होता है। इसका मतलब है कि यह अन्य दोषों के साथ मिलकर उनके गुणों को भी धारण कर लेता है। जैसे कि जब यह पित्त दोष के साथ मिलता है तो इसमें दाह, गर्मी वाले गुण आ जाते हैं और जब कफ के साथ मिलता है तो इसमें शीतलता और गीलेपन जैसे गुण आ जाते हैं।
🌼वात के प्रकार
शरीर में इनके निवास स्थानों और अलग कामों के आधार पर वात को पांच भांगों में बांटा गया है।
प्राण
उदान
समान
व्यान
अपान
🌺आयुर्वेद के अनुसार सिर्फ वात के प्रकोप से होने वाले रोगों की संख्या ही 80 के करीब है।
🥀वात के गुण
रूखापन, शीतलता, लघु, सूक्ष्म, चंचलता, चिपचिपाहट से रहित और खुरदुरापन वात के गुण हैं। रूखापन वात का स्वाभाविक गुण है। जब वात संतुलित अवस्था में रहता है तो आप इसके गुणों को महसूस नहीं कर सकते हैं। लेकिन वात के बढ़ने या असंतुलित होते ही आपको इन गुणों के लक्षण नजर आने लगेंगे।
🏵️वात प्रकृति की विशेषताएं
आयुर्वेद की दृष्टि से किसी भी व्यक्ति के स्वास्थ्य और रोगों के इलाज में उसकी प्रकृति का विशेष योगदान रहता है। इसी प्रकृति के आधार पर ही रोगी को उसके अनुकूल खानपान और औषधि की सलाह दी जाती है।
🌼वात दोष के गुणों के आधार पर ही वात प्रकृति के लक्षण नजर आते हैं. जैस कि रूखापन गुण होने के कारण भारी आवाज, नींद में कमी, दुबलापन और त्वचा में रूखापन जैसे लक्षण होते हैं. शीतलता गुण के कारण ठंडी चीजों को सहन ना कर पाना, जाड़ों में होने वाले रोगों की चपेट में जल्दी आना, शरीर कांपना जैसे लक्षण होते हैं. शरीर में हल्कापन, तेज चलने में लड़खड़ाने जैसे लक्षण लघुता गुण के कारण होते हैं.
🌺इसी तरह सिर के बालों, नाखूनों, दांत, मुंह और हाथों पैरों में रूखापन भी वात प्रकृति वाले लोगों के लक्षण हैं. स्वभाव की बात की जाए तो वात प्रकृति वाले लोग बहुत जल्दी कोई निर्णय लेते हैं. बहुत जल्दी गुस्सा होना या चिढ़ जाना और बातों को जल्दी समझकर फिर भूल जाना भी पित्त प्रकृति वाले लोगों के स्वभाव में होता है.
🌸वात बढ़ने के कारण
जब आयुर्वेदिक चिकित्सक आपको बताते हैं कि आपका वात बढ़ा हुआ है तो आप समझ नहीं पाते कि आखिर ऐसा क्यों हुआ है? दरअसल हमारे खानपान, स्वभाव और आदतों की वजह से वात बिगड़ जाता है। वात के बढ़ने के प्रमुख कारण निम्नलिखित हैं।
🌹मल-मूत्र या छींक को रोककर रखना
खाए हुए भोजन के पचने से पहले ही कुछ और खा लेना और अधिक मात्रा में खाना
रात को देर तक जागना, तेज बोलना
अपनी क्षमता से ज्यादा मेहनत करना
सफ़र के दौरान गाड़ी में तेज झटके लगना
तीखी और कडवी चीजों का अधिक सेवन
बहुत ज्यादा ड्राई फ्रूट्स खाना स्नेहा समूह
हमेशा चिंता में या मानसिक परेशानी में रहना
ज्यादा सेक्स करना
ज्यादा ठंडी चीजें खाना
व्रत रखना
🌺ऊपर बताए गये इन सभी कारणों की वजह से वात दोष बढ़ जाता है। बरसात के मौसम में और बूढ़े लोगों में तो इन कारणों के बिना भी वात बढ़ जाता है।
🌷वात बढ़ जाने के लक्षण
वात बढ़ जाने पर शरीर में तमाम तरह के लक्षण नजर आते हैं। आइये उनमें से कुछ प्रमुख लक्षणों पर एक नजर डालते हैं।
अंगों में रूखापन और जकड़न
सुई के चुभने जैसा दर्द
हड्डियों के जोड़ों में ढीलापन
हड्डियों का खिसकना और टूटना
अंगों में कमजोरी महसूस होना एवं अंगों में कंपकपी
अंगों का ठंडा और सुन्न होना
🌴कब्ज़
नाख़ून, दांतों और त्वचा का फीका पड़ना
मुंह का स्वाद कडवा होना
अगर आपमें ऊपर बताए गये लक्षणों में से 2-3 या उससे ज्यादा लक्षण नजर आते हैं तो यह दर्शाता है कि आपके शरीर में वात दोष बढ़ गया है। ऐसे में नजदीकी चिकित्सक के पास जाएं और अपना इलाज करवाएं।
🌷वात को संतुलित करने के उपाय
वात को शांत या संतुलित करने के लिए आपको अपने खानपान और जीवनशैली में बदलाव लाने होंगे। आपको उन कारणों को दूर करना होगा जिनकी वजह से वात बढ़ रहा है। वात प्रकृति वाले लोगों को खानपान का विशेष ध्यान रखना चाहिए क्योंकि गलत खानपान से तुरंत वात बढ़ जाता है. खानपान में किये गए बदलाव जल्दी असर दिखाते हैं।
🌻वात को संतुलित करने के लिए क्या खाएं
घी, तेल और फैट वाली चीजों का सेवन करें।
गेंहूं, तिल, अदरक, लहसुन और गुड़ से बनी चीजों का सेवन करें।
नमकीन छाछ, मक्खन, ताजा पनीर, उबला हुआ गाय के दूध का सेवन करें।
घी में तले हुए सूखे मेवे खाएं या फिर बादाम,कद्दू के बीज, तिल के बीज, सूरजमुखी के बीजों को पानी में भिगोकर खाएं।
खीरा, गाजर, चुकंदर, पालक, शकरकंद आदि सब्जियों का नियमित सेवन करें।
मूंग दाल, राजमा, सोया दूध का सेवन करें।
🍃वात प्रकृति वाले लोगों को क्या नहीं खाना चाहिए
अगर आप वात प्रकृति के हैं तो निम्नलिखित चीजों के सेवन से परहेज करें।
साबुत अनाज जैसे कि बाजरा, जौ, मक्का, ब्राउन राइस आदि के सेवन से परहेज करें।
किसी भी तरह की गोभी जैसे कि पत्तागोभी, फूलगोभी, ब्रोकली आदि से परहेज करें।
जाड़ों के दिनों में ठंडे पेय पदार्थों जैसे कि कोल्ड कॉफ़ी, ब्लैक टी, ग्रीन टी, फलों के जूस आदि ना पियें।
नाशपाती, कच्चे केले आदि का सेवन ना करें।
🌹जीवनशैली में बदलाव
जिन लोगों का वात अक्सर असंतुलित रहता है उन्हें अपने जीवनशैली में ये बदलाव लाने चाहिए।
एक निश्चित दिनचर्या बनाएं और उसका पालन करें।
रोजाना कुछ देर धूप में टहलें और आराम भी करें।
किसी शांत जगह पर जाकर रोजाना ध्यान करें।
गर्म पानी से और वात को कम करने वाली औषधियों के काढ़े से नहायें। औषधियों से तैयार काढ़े को टब में डालें और उसमें कुछ देर तक बैठे रहें।
गुनगुने तेल से नियमित मसाज करें, मसाज के लिए तिल का तेल, बादाम का तेल और जैतून के तेल का इस्तेमाल करें।
मजबूती प्रदान करने वाले व्यायामों को रोजाना की दिनचर्या में ज़रूर शामिल करें।
🌷वात में कमी के लक्षण और उपचार
वात में बढ़ोतरी होने की ही तरह वात में कमी होना भी एक समस्या है और इसकी वजह से भी कई तरह की समस्याएं होने लगती हैं। आइये पहले वात में कमी के प्रमुख लक्षणों के बारे में जानते हैं।
वात में कमी के लक्षण :
बोलने में दिक्कत
अंगों में ढीलापन
सोचने समझने की क्षमता और याददाश्त में कमी
वात के स्वाभाविक कार्यों में कमी
पाचन में कमजोरी
जी मिचलाना
🌹उपचार :
वात की कमी होने पर वात को बढ़ाने वाले आहार का सेवन करना चाहिए। कडवे, तीखे, हल्के एवं ठंडे पेय पदार्थों का सेवन करें। इनके सेवन से वात जल्दी बढ़ता है। इसके अलावा वात बढ़ने पर जिन चीजों के सेवन की मनाही होती है उन्हें खाने से वात की कमी को दूर किया जा सकता है।
🏵️साम और निराम वात
हम जो भी खाना खाते हैं उसका कुछ भाग ठीक से पाच नहीं पता है और वह हिस्सा मल के रुप में बाहर निकलने की बजाय शरीर में ही पड़ा रहता है। भोजन के इस अधपके अंश को आयुर्वेद में “आम रस’ या ‘आम दोष’ कहा गया है।
जब वात शरीर में आम रस के साथ मिल जाता है तो उसे साम वात कहते हैं। साम वात होने पर निम्नलिखित लक्षण नजर आते हैं।
मल-मूत्र और गैस बाहर निकालने में दिक्कत
पाचन शक्ति में कमी
हमेशा सुस्ती या आलस महसूस होना
आंत में गुडगुडाहट की आवाज
कमर दर्द
🍂यदि साम वात का इलाज ठीक समय पर नहीं किया गया तो आगे चलकर यह पूरे शरीर में फ़ैल जाता है और कई बीमारियों होने लगती हैं।
🌻जब वात, आम रस युक्त नहीं होता है तो यह निराम वात कहलाता है। निराम वात के प्रमुख लक्षण त्वचा में रूखापन, मुंह जीभ का सूखना आदि है. इसके लिए तैलीय खाद्य पदार्थों का अधिक सेवन करें।
🌷अगर आप वात प्रकृति के हैं और अक्सर वात के असंतुलित होने से परेशान रहते हैं तो ऊपर बताए गए नियमों का पालन करें। यदि समस्या ठीक ना हो रही हो या गंभीर हो तो किसी आयुर्वेदिक चिकित्सक से संपर्क करें।
पित्त दोष क्या है?
🌸पित्त दोष ‘अग्नि’ और ‘जल’ इन दो तत्वों से मिलकर बना है। यह हमारे शरीर में बनने वाले हार्मोन और एंजाइम को नियंत्रित करता है। शरीर की गर्मी जैसे कि शरीर का तापमान, पाचक अग्नि जैसी चीजें पित्त द्वारा ही नियंत्रित होती हैं। पित्त का संतुलित अवस्था में होना अच्छी सेहत के लिए बहुत ज़रूरी है। शरीर में पेट और छोटी आंत में पित्त प्रमुखता से पाया जाता है।
🌺ऐसे लोग पेट से जुड़ी समस्याओं जैसे कि कब्ज़, अपच, एसिडिटी आदि से पीड़ित रहते हैं। पित्त दोष के असंतुलित होते ही पाचक अग्नि कमजोर पड़ने लगती है और खाया हुआ भोजन ठीक से पच नहीं पाता है। पित्त दोष के कारण उत्साह में कमी होने लगती है साथ ही ह्रदय और फेफड़ों में कफ इकठ्ठा होने लगता है। इस लेख में हम आपको पित्त दोष के लक्षण, प्रकृति, गुण और इसे संतुलित रखने के उपाय बता रहे हैं।
💐पित्त के प्रकार :
शरीर में इनके निवास स्थानों और अलग कामों के आधार पर पित्त को पांच भांगों में बांटा गया है.
पाचक पित्त
रज्जक पित्त
साधक पित्त
आलोचक पित्त
भ्राजक पित्त
🌾केवल पित्त के प्रकोप से होने वाले रोगों की संख्या 40 मानी गई है।
🌺पित्त के गुण :
चिकनाई, गर्मी, तरल, अम्ल और कड़वा पित्त के लक्षण हैं। पित्त पाचन और गर्मी पैदा करने वाला व कच्चे मांस जैसी बदबू वाला होता है। निराम दशा में पित्त रस कडवे स्वाद वाला पीले रंग का होता है। जबकि साम दशा में यह स्वाद में खट्टा और रंग में नीला होता है। किसी भी दोष में जो गुण पाए जाते हैं उनका शरीर पर अलग अलग प्रभाव पड़ता है और उसी से प्रकृति के लक्षणों और विशेषताओं का पता चलता है.
🌷पित्त प्रकृति की विशेषताएं :
पित्त प्रकृति वाले लोगों में कुछ ख़ास तरह की विशेषताओं पाई जाती हैं जिनके आधार पर आसानी से उन्हें पहचाना जा सकता है। अगर शारीरिक विशेषताओं की बात करें तो मध्यम कद का शरीर, मांसपेशियों व हड्डियों में कोमलता, त्वचा का साफ़ रंग और उस पर तिल, मस्से होना पित्त प्रकृति के लक्षण हैं। इसके अलावा बालों का सफ़ेद होना, शरीर के अंगों जैसे कि नाख़ून, आंखें, पैर के तलवे हथेलियों का काला होना भी पित्त प्रकृति की विशेषताएं हैं।
🌸पित्त प्रकृति वाले लोगों के स्वभाव में भी कई विशेषताए होती हैं। बहुत जल्दी गुस्सा हो जाना, याददाश्त कमजोर होना, कठिनाइयों से मुकाबला ना कर पाना व सेक्स की इच्छा में कमी इनके प्रमुख लक्षण हैं। ऐसे लोग बहुत नकारात्मक होते हैं और इनमें मानसिक रोग होने की संभावना ज्यादा रहती है।
💐पित्त बढ़ने के कारण:
जाड़ों के शुरूआती मौसम में और युवावस्था में पित्त के बढ़ने की संभावना ज्यादा रहती है। अगर आप पित्त प्रकृति के हैं तो आपके लिए यह जानना बहुत ज़रूरी है कि आखिर किन वजहों से पित्त बढ़ रहा है। आइये कुछ प्रमुख कारणों पर एक नजर डालते हैं।
चटपटे, नमकीन, मसालेदार और तीखे खाद्य पदार्थों का अधिक सेवन
🥀ज्यादा मेहनत करना, हमेशा मानसिक तनाव और गुस्से में रहना
अधिक मात्रा में शराब का सेवन
सही समय पर खाना ना खाने से या बिना भूख के ही भोजन करना
ज्यादा सेक्स करना स्नेहा आयूर्वेद ग्रुप
तिल का तेल,सरसों, दही, छाछ खट्टा सिरका आदि का अधिक सेवन
गोह, मछली, भेड़ व बकरी के मांस का अधिक सेवन
🌻ऊपर बताए गए इन सभी कारणों की वजह से पित्त दोष बढ़ जाता है। पित्त प्रकृति वाले युवाओं को खासतौर पर अपना विशेष ध्यान रखना चाहिए और इन चीजों का सेवन नहीं करना चाहिए।
🌺पित्त बढ़ जाने के लक्षण :
जब किसी व्यक्ति के शरीर में पित्त दोष बढ़ जाता है तो कई तरह के शारीरिक और मानसिक लक्षण नजर आने लगते हैं। पित्त दोष बढ़ने के
🌺कुछ प्रमुख लक्षण निम्न हैं।
बहुत अधिक थकावट, नींद में कमी
शरीर में तेज जलन, गर्मी लगना और ज्यादा पसीना आना
त्वचा का रंग पहले की तुलना में गाढ़ा हो जाना
अंगों से दुर्गंध आना
मुंह, गला आदि का पकना
ज्यादा गुस्सा आना
बेहोशी और चक्कर आना
मुंह का कड़वा और खट्टा स्वाद
ठंडी चीजें ज्यादा खाने का मन करना
त्वचा, मल-मूत्र, नाखूनों और आंखों का रंग पीला पड़ना
💐अगर आपमें ऊपर बताए गये लक्षणों में से दो या तीन लक्षण भी नजर आते हैं तो इसका मतलब है कि पित्त दोष बढ़ गया है। ऐसे में नजदीकी चिकित्सक के पास जाएं और अपना इलाज करवाएं।
🌹पित्त को शांत करने के उपाय :
बढे हुए पित्त को संतुलित करने के लिए सबसे पहले तो उन कारणों से दूर रहिये जिनकी वजह से पित्त दोष बढ़ा हुआ है। खानपान और जीवनशैली में बदलाव के अलावा कुछ चिकित्सकीय प्रक्रियाओं की मदद से भी पित्त को दूर किया जाता है।
🏵️विरेचन :
बढे हुए पित्त को शांत करने के लिए विरेचन (पेट साफ़ करने वाली औषधि) सबसे अच्छा उपाय है। वास्तव में शुरुआत में पित्त आमाशय और ग्रहणी (Duodenum) में ही इकठ्ठा रहता है। ये पेट साफ़ करने वाली औषधियां इन अंगों में पहुंचकर वहां जमा पित्त को पूरी तरह से बाहर निकाल देती हैं।
🌷पित्त को संतुलित करने के लिए क्या खाएं :
अपनी डाइट में बदलाव लाकर आसानी से बढे हुए पित्त को शांत किया जा सकता है. आइये जानते हैं कि पित्त के प्रकोप से बचने के लिए किन चीजों का सेवन अधिक करना चाहिए.
घी का सेवन सबसे ज्यादा ज़रुरी है।
गोभी, खीरा, गाजर, आलू, शिमला मिर्च और हरी पत्तेदार सब्जियों का सेवन करें।
सभी तरह की दालों का सेवन करें।
एलोवेरा जूस, अंकुरित अनाज, सलाद और दलिया का सेवन करें।
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पित्त प्रकृति वाले लोगों को क्या नहीं खाना चाहिए :
खाने-पीने की कुछ चीजें ऐसी होती हैं जिनके सेवन से पित्त दोष और बढ़ता है। इसलिए पित्त प्रकृति वाले लोगों को इन चीजों का सेवन नहीं करना चाहिए।
मूली, काली मिर्च और कच्चे टमाटर खाने से परहेज करें।
तिल के तेल, सरसों के तेल से परहेज करें।
काजू, मूंगफली, पिस्ता, अखरोट और बिना छिले हुए बादाम से परहेज करें।
संतरे के जूस, टमाटर के जूस, कॉफ़ी और शराब से परहेज करें।
🌺जीवनशैली में बदलाव :
सिर्फ खानपान ही नहीं बल्कि पित्त दोष को कम करने के लिए जीवनशैली में भी कुछ बदलाव लाने ज़रूरी हैं। जैसे कि
ठंडे तेलों से शरीर की मसाज करें।
तैराकी करें।
रोजाना कुछ देर छायें में टहलें, धूप में टहलने से बचें।
ठंडे पानी से नियमित स्नान करें।
💮पित्त की कमी के लक्षण और उपचार :
पित्त में बढ़ोतरी होने पर समस्याएँ होना आम बात है लेकिन क्या आपको पता है कि पित्त की कमी से भी कई शारीरिक समस्याएं हो सकती हैं? शरीर में पित्त की कमी होने से शरीर के तापमान में कमी, मुंह की चमक में कमी और ठंड लगने जैसी समस्याएं होती हैं। कमी होने पर पित्त के जो स्वाभाविक गुण हैं वे भी अपना काम ठीक से नहीं करते हैं। ऐसी अवस्था में पित्त बढ़ाने वाले आहारों का सेवन करना चाहिए। इसके अलावा ऐसे खाद्य पदार्थों और औषधियों का सेवन करना चाहिए जिनमें अग्नि तत्व अधिक हो।
🌺साम और निराम पित्त :
हम जो भी खाना खाते हैं उसका कुछ भाग ठीक से पच नहीं पता है और वह हिस्सा मल के रुप में बाहर निकलने की बजाय शरीर में ही पड़ा रहता है। भोजन के इस अधपके अंश को आयुर्वेद में “आम रस’ या ‘आम दोष’ कहा गया है।
🌸जब पित्त, आम दोष से मिल जाता है तो उसे साम पित्त कहते हैं। साम पित्त दुर्गन्धयुक्त खट्टा, स्थिर, भारी और हरे या काले रंग का होता है। साम पित्त होने पर खट्टी डकारें आती हैं और इससे छाती व गले में जलन होती है। इससे आराम पाने के लिए कड़वे स्वाद वाले खाद्य पदार्थों का सेवन करें।
🥀जब पित्त, आम दोष से नहीं मिलता है तो उसे निराम पित्त कहते हैं। निराम पित्त बहुत ही गर्म, तीखा, कडवे स्वाद वाला, लाल पीले रंग का होता है। यह पाचन शक्ति को बढ़ाता है। इससे आराम पाने के लिए मीठे और कसैले पदार्थों का सेवन करें।