‘जब श्रीराम ने रावण को जीवन-दान दिया’
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विजय बुधोलिया.
संभवत: अपवाद स्वरूप ही कोई ऐसा हो,जो अपने शत्रु के बल,तेज, प्रताप और शौर्य की प्रशंसा मुक्त कंठ से कर सकता हो।ढूंढ़ने पर भी ऐसा व्यक्ति मिलना मुश्किल है।केवल श्रीराम में ही ऐसे अनोखे गुण मिल सकते हैं। पराकाष्ठा तो यह है कि एक वही हैं,जो सुधरने का मौका देने के लिए शत्रु को एक बार जीवनदान भी दे सकते हैं।वह भी तब,जब शत्रु परास्त हो और उसके प्राण लेने का उनके पास सबसे उपयुक्त अवसर और कारण हो।
यह अनूठा प्रसंग है राम-रावण युद्ध का।कथा-क्रम यह है कि जब राक्षसराज रावण ने सुना कि उसका शूरवीर सेनापति प्रहस्त युद्ध में मारा गया,तब वह विचलित हो गया।सहसा उसने निर्णय लिया कि अब वह स्वयं ही युद्ध करने जाएगा।उसने घोषणा की कि “आज मैं उस वानरी सेना और लक्ष्मण सहित श्रीराम को अपने बाणों से उसी प्रकार दग्ध कर दूँगा; जैसे दहकती हुई अग्नि वन को भस्म कर देती है।” यह कहकर अलंकारों की जगमगाहट से चमचमाता और स्वरूपत: दीप्तिमान रावण,उत्तम घोड़ों से युक्त तथा प्रकाशमान रथ पर सवार हुआ।
“स एव मुक्त्वा ज्वलन प्रकाशं,रथ तुरंगोत्तम राजयुक्तम्।
प्रकाशमानं वपुपा ज्वलंतं समारूहरोहामरराज शत्रु:।।
उस के साथ महाबली अकम्पन,इन्द्रजित, अतिकाय,महोदर,पिशाच, त्रिशिरा,कुम्भ,निकुम्भ और नरान्तक भी अपने अपने वाहनों पर सवार होकर युद्धभूमि की ओर प्रस्थित हुए।
श्रीराम की सेना में केवल विभीषण ही ऐसे थे,जो रावण की सेना के इन सभी महारथियों को उनकी विशेषताओं के साथ जानते थे।उन्होंने इन सबका परिचय श्रीराम को दिया।इनके बाद रावण के युद्धभूमि में आने पर विभीषण ने उसके बारे में कुछ यूँ बताया “जो मुकुट धारण किए हुए हैं तथा जिसका मुखमंडल झिलमिलाते हुए कुंडलों से अलंकृत है,जिसका शरीर हिमालय या विंध्याचल पर्वत की तरह भयंकर है और जो इन्द्र तथा यम के अभिमान को भी चूर चूर करने वाला है और जो सूर्य की तरह प्रदीप्त जान पड़ता है,वही राक्षसों का राजा रावण है।”
“असो किरीटी चलकुण्डलास्यो,नगेन्द्र विंध्योपम भीमकाय:।
महेन्द्र वैवस्त दर्पहन्ता,रक्षोधिप: इबावभाति।।
यह सुन श्रीराम ने शत्रुहन्ता विभीषण से कहा–वाह, राक्षसराज रावण बड़ा कान्तिमान और बड़ा प्रतापी है।
“प्रत्युवाच ततो रामो विभीषण मरिन्दनमम्।
अहो दीप्तो महातेजा रावणो राक्षसेश्वर:।।”
“राक्षसराज रावण का जैसा रूप दिखलाई पड़ रहा है,वैसा रूप किसी भी शूरवीर देवता अथवा दानव का नहीं है।”
“देव दानव वीराणां वपुर्नैवविधं भवते।
यादृशं राक्षसेन्द्रस्य वपुरेतत्प्काशते।।”
इस महाबली के साथ जो योद्धा हैं,वे भी तो सब पर्वत के समान विशाल शरीरधारी,चमचमाते आयुध लिए हुए हैं।
इन योद्धाओं के बीच राक्षसराज रावण वैसे ही शोभित हो रहा है,जैसे उग्र और प्रशस्त शरीर वाले तथा भूतों से घिरे हुए साक्षात् यमराज।
“भाति राक्षस राजोअसि प्रदीप्तैर्भीम विरयक्रमै:।।
भूतै: परिवृतस्ती क्षणैर्दैहवद्भिरिवान्तक:।।”
यह पहला अवसर था,जब श्रीराम ने रावण को देखा था और उसे देखकर ही श्रीराम ने प्रशंसावाचक मनोभाव प्रकट किए थे।यह पुरुषोत्तम राम की ही महानता थी,जिन्होंने अपने परम् शत्रु रावण में भी इतनी विशेषताएँ देख ली थीं।अन्यथा, भला और किसी की क्या बिसात जो अपने शत्रु के प्रति ऐसे उदार उद्गार व्यक्त कर सके।
किन्तु,रावण युद्धभूमि में श्रीराम के बल-पराक्रम की प्रशंसा करने नहीं आया था।कोई भी अभिमानी व्यक्ति ऐसा ही करता है,वह इतना आत्ममुग्ध होता है कि अपने अलावा किसी और की खूबियाँ उसे दिखती ही नहीं ।समरांगण में पहुँचते ही उसने अपनी रणनीति बनाना शुरु कर दी।इन्द्रजित और कुछ अन्य योद्धाओं को लंका नगरी की रक्षा के लिए वापस भेज दिया।उसे आशंका थी कि यदि ऐसा नहीं किया गया तो अनेक वानर योद्धा लंका में घुस जाएँगे और वहाँ भारी उत्पात मचाएँगे।ऐसा कर उसने रणभूमि में वानर सेना का संहार प्रारंभ कर अपना पराक्रम दिखाना शुरु कर दिया।वानर योद्धाओं में ऐसा कोई भी नहीं था,जो उसका मुकाबला कर पाता।वानरराज सुग्रीव ने अपनी पूरी शक्ति लगा दी,पर वे भी शीघ्र ही अचेत होकर गिर पड़े।ऐसे ही साहस और शक्ति से अन्य वानर वीरों ने भी रावण और अन्य राक्षस महाबलियों का मुकाबला किया और शत्रु की बहुत सारी सेना का संहार भी किया।पर इस तुमुल युद्ध में गवाक्ष,गवय,सुदंष्ट्र,
ज्योतिर्मुख,नल, नील आदि सभी बुरी तरह घायल हुए।हनुमान् जी ने रावण का सामना किया और अपनी मुष्टिका प्रहार से उसे विचलित और घायल कर दिया।स्वस्थ होने पर उसने हनुमान् के बल की प्रशंसा की,पर हनुमान् ने उसकी प्रशंसा पर कोई ध्यान नहीं दिया तथा यह कह कर स्वयं के बल को धिक्कारा कि मेरे मुष्टिका प्रहार के बाद भी तुझसा देवद्रोही अगर जीवित बच गया तो मेरे बल को धिक्कार है।तब रावण ने भी अपनी मुष्टिका से हनुमान् की छाती पर प्रहार किया।जिससे हनुमान् जी की भी वैसी ही दशा हुई,जैसी रावण की हुई थी।
अपने शूरवीरों को घायल होते या मारे जाते देखकर श्रीराम स्वयं युद्ध के लिए आगे बढ़े।उन्हें आगे बढ़ता देख लक्ष्मण ने उनसे रावण के साथ युद्ध करने की अनुमति मांगी।उनकी अनुमति पाकर लक्ष्मण रावण के सामने आए।दोनों के बीच भीषण युद्ध शुरु हुआ।रावण के सभी दिव्यास्त्रों को लक्ष्मण ने अपने निवारक अस्त्रों से निष्फल किया और अपने बाणों से रावण को व्यथित भी किया।तब रावण ने ब्रह्मा जी द्वारा दी गई अमोघ शक्ति लक्ष्मण पर चलाई,जिसके प्रभाव से वे अचेत हो कर भूमि पर गिर पड़े।रावण चाहता था कि वह अचेत लक्ष्मण को उठा कर लंका ले जाए।इसलिए वह झपट कर दौड़ा।पर वह उनके शरीर को उठाना तो दूर,हिला भी नहीं पाया। रावण को ऐसा करते देख हनुमान् दौड़े।उन्होंने रावण पर जोरदार आघात किया, जिससे रावण लगभग मूर्छित होते-होते बचा।रावण यह देखकर हतप्रभ रह गया जिस लक्ष्मण को वह हिला भी नहीं सका था उसी को हनुमान् जी ने सहजता से उठा लिया।हनुमान् जी अचेत और घायल लक्ष्मण को श्रीराम के पास ले आए।राम ने लक्ष्मण के शरीर में धंसी हुई उस शक्ति का निवारण किया और अचेत लक्ष्मण को वीर सैनिकों की देखरेख में छोड़ यह कहते हुए युद्ध के लिए सन्नद्ध हुए “द्वंदजुद्ध देखहु सकल,श्रमित भए अति बीर।”
हनुमान् जी ने तब श्रीराम से निवेदन किया कि जैसे श्री हरि विष्णु गरुड़ पर सवार होकर दैत्य से लडे थे,वैसे ही आप मेरे पीठ पर बैठ जाईए।श्रीराम ने हनुमान् जी के इस प्रस्ताव को स्वीकार किया और हनुमान जी की पीठ पर बैठ गए और रावण से बोले “यदि तू इन्द्र,यम,शिव, अग्नि,ब्रह्मा की शरण में भी जाएगा या दसों दिशाओं में भी भागकर जाएगा,तो भी तू मुझसे बच नहीं सकता।”
“यदीन्द्रवैवस्तभास्करान्वा
स्वयं भुवैश्वानर शंकरान्वा।
गमिष्यसि त्वं दश वा दिशोअथवा,
तथापि मे नाद्य गतो वमोक्ष्यसे।।”
जिन लक्ष्मण को शक्ति से मारकर तूने मुझे जो दुख पहुँचाया है,उसे शान्त करने के लिए,मैं तुझे और तेरे पुत्र,पौत्रों को मारने की प्रतिज्ञा कर समरभूमि में आया हूँ।
राम के यह वचन सुन राक्षसराज रावण ने महावीर हनुमान,जो राम को अपनी पीठ पर चढ़ाए हुए थे,कालाग्नि के समान तीक्ष्ण बाण मारे।रावण के छोड़े हुए बाण हनुमान् जी को लगे,पर स्वभाव से ही तेजस्वी होने के कारण उनका तेज और भी बढ़ा और उन्होंने भयंकर गर्जना की।तब महातेजस्वी श्रीराम हनुमान् को घायल देखकर अत्यंत कुपित हुए और उन्होंने अपने बाणों से रावण के रथ के पहिए,ध्वजा,छत्र,बड़ी पताका,वज्र,शूल,तलवार के टुकड़े-टुकड़े कर डाले और सारथी व घोड़ों को मार ड़ाला।उन्होंने एक बाण रावण की छाती पर मारा,जिससे जो वीर रावण बड़े बड़े वज्रों के आघात से कभी नहीं घबड़ाया था,वह बुरी तरह विचलित हो गया और उसके हाथ से धनुष भी गिर पड़ा।जब श्रीराम ने रावण को मूर्छित देखा तब उन्होंने चमचमाता हुए अर्धचंद्राकार बाण का संधान कर उसके कीरीट को भी काट गिराया।तब घायल और प्रभाहीन रावण से श्रीराम बोले “यद्यपि तूने मेरे प्रधान वीरों को मार कर बड़ा भयंकर और क्षमा न करने योग्य काम किया है,तथापि इस समय तुझे थका हुआ जान,अपने बाणों से जान से नही मार रहा हूँ।”
कृतं त्वया कर्म महत्सुभीमं हत प्रवीरश्च कृतस्वत्वयाहम्।
तस्मात्परिश्रान्त इव वयवस्य न त्वां शरैर्मृत्युवशं नयामि।।
अब तू चला जा,क्योंकि मैं जानता हूँ कि लड़ते लड़ते तू श्रांत हो गया है।हे निशाचर! अब तू लंका जाकर अपनी थकावट दूर कर और दूसरे रथ पर बैठ और दूसरा धनुष लेकर आ जा।तब मेरा बल देखना।
“गच्छानुजानामि रणार्दितस्वं भविष्य रात्रिंचरराज लंकाम्।
आश्वास्य निर्याहि रथी च धन्वी
तदा बलं द्रक्ष्यसि में रथस्थ:।।”
ऐसे थे करुणानिधान प्रभु श्रीराम,जो रणभूमि में भी अपने परम् शत्रु,जिसने उनकी भार्या का हरण कर अपने कब्जे में रख रखा था,को भी जीवनदान देने से नहीं चूके।जबकि वे उसी समय रावण की इतिश्री सकते थे।
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विजय बुधोलिया.